[संत कवि रहीम के अति चर्चित दोहे]
नात नेह दूरी भली, लो 'रहीम' जिय जानि।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि।।
भावार्थ- सगे-संबंधियों के समीप रहने से संबंधों में फर्क पड़ जाता है। कवि रहीम कहते हैं कि यह भली-भांति हृदयंगम कर लो कि संबंधियों से कुछ दूरी ही अच्छी होती है। निकट रहने से गड्ढे में भरे जल की भांति निरादर ही होता है। जैसे गड्ढे में भरे हुए पानी को मच्छर, दुर्गंध आदि के कारण फेंकना पड़ता है; इसी तरह बहुत पास रहने पर सगे-संबंधियों के प्रेम में कमी आ जाती है। सबको एक दूसरे के दोष दिखाई देते हैं और झगड़े होने लगते हैं।
जैसी जाकि बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।
ताकों बुरो न मानिए, लेन कहां सो जाय।।
भावार्थ- सब अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से बात करते हैं। जिस मनुष्य की जैसी बुद्धि होती है, वह उसके अनुरूप ही कार्य करता है। उसका बुरा मत मानिए, क्योंकि वह और अधिक बुद्धि कहां लेने जाएगा। रहीम कवि के कहने का अर्थ है कि यदि कोई बुरी बात कह दे तो उसकी बुद्धि की वही सीमा समझकर बुरा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह अल्प-बुद्धि व्यक्ति विवेक-बुद्धि कहां से लेने जाएगा?
धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहै, त्यों 'रहीम' यह देह।।
भावार्थ- मनुष्य को दुख-सुख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी में समान भाव से रहना चाहिए। धरती शीत, गर्मी और वर्षा को सहन करती है। यह उसकी परंपरा है। कवि रहीम कहते हैं कि जीवन में जैसा भी सुख-दुख का अवसर आए, मानव काया को उसे सहन करना चाहिए अर्थात सारी ऋतुएँ बारी-बारी से पृथ्वी पर आती-जाती रहती हैं। पृथ्वी उन सभी का समान रूप से स्वागत करती है। ऐसे ही मनुष्य को भी प्रत्येक परिस्थिति का हंसकर सामना करना चाहिए।
बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु 'रहीम' इतराइ।
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ।।
भावार्थ- छोटे लोग घमंड करने लगते हैं जबकि बड़े नहीं इतराते। कवि रहीम कहते हैं की राई करौंदा हो जाती है, परंतु कटहल राई नहीं हो सकता। इसी भांति महान पुरुष अपनी गरिमा को नहीं त्यागते, जबकि छोटे व्यक्ति अहंकारी हो जाते हैं। कवि कहना चाहता है कि जो स्वयं को छोटा मानता है, वह महान होता है तथा जो छोटा होते हुए भी स्वयं को बड़ा मानकर अहंकार करता है, वह छोटा ही रहता है; जैसे राई छोटा होकर भी करौंदा बन जाती है।।
दुरदिन परे 'रहीम' कहि, दुरथल जैयत भागि।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि।।
भावार्थ- दुख में व्यक्ति को बुरी से बुरी जगह पर भागकर जाना पड़ता है। कवि रहीम कहते हैं कि बुरे दिन आने पर सब तिरस्कार कर अपने से दूर कर देते हैं। जब घर में आग लगती है तो कूड़े-करकट के ढेर पर खड़ा होना पड़ता है। अभिप्राय यह है कि जब आदमी का समय बदलता है और दुख के दिन आ पड़ते हैं तो उसे अपनी रक्षा के लिए बुरे से बुरे स्थान पर भी जाना पड़ता है। जैसे घर में आग लगने पर आग से बचने के लिए आदमी कूड़े के ढेर पर भी खड़ा हो जाता है।
फरजी सह न ह्य सकै, गति टेढ़ी तासीर।
'रहिमन' सीधे चाल सों, प्यादो होत वजीर।।
भावार्थ- प्रेम करने वालों को सरलता से व्यवहार करना चाहिए। कवि रहीम कहते हैं कि प्रेम में वजीर के समान टेढ़ी चाल नहीं चली जाती। पैदल मोहरा (शतरंज में) जिस प्रकार सीधे चलते हुए अंत में वजीर बन जाता है, उसी प्रकार सरल हृदय से की गई भक्ति से परमात्मा का प्रेम प्राप्त हो जाता है अर्थात जो प्रेम में कपट रखकर व्यवहार करता है, उसे कभी सफलता नहीं मिलती; क्योंकि प्रेम की पहली शर्त निष्कपटता होती है। छल-कपट का व्यवहार प्रेम को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है।
धन दर अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्त।
नहिं 'रहीम' कोऊ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त।।
भावार्थ- सुख के समय भी व्यक्ति को सच्चे मित्र की खोज करते रहना चाहिए। व्यक्ति धन, स्त्री, और पुत्र आदि के मोहजाल में सदा फंसा रहता है। कवि रहीम कहते हैं कि विपत्ति के समय के लिए सच्चे मित्र की खोज कोई नहीं करता। जब तक मनुष्य के पास धन रहता है, सुख रहता है वह अपने धन, घर, स्त्री, संतान आदि में खोया रहता है और विपत्ति पड़ने पर सच्चे मित्र की जब आवश्यकता सामने आती है, तब उसे खोजने निकलता है। सुख में कोई विपत्ति में काम आने वाले मित्र को नहीं तलाशता।
मथत मथत माखन रहै, दही मही बिलगाय।
'रहिमन' सोई मीत है, भीर परे ठहराय।।
भावार्थ- जो मुसीबत में काम आता है। वही सच्चा मित्र होता है। कवि कहते हैं कि जब दही को लगातार मथा जाता है तो उसमें से मक्खन अलग हो जाता है और दही मठ्ठे में विलीन होकर मक्खन को अपने ऊपर आश्रय देती है। इसी प्रकार सच्चा मित्र वही होता है, जो विपत्ति आने पर भी साथ नहीं छोड़ता। कहने का अभिप्राय है कि सामान्य जन तो सुख-भोग, धन-संपत्ति और आनंद के समय ही मित्रता रखते हैं परंतु वास्तविक मित्र विपत्ति में भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ देते हैं।
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